रूस से तेल व्यापार में भारत की सक्रियता के बीच, यूरोपीय संघ (EU) ने तीन भारतीय तेल कंपनियों पर प्रतिबंध लगाकर नई दिल्ली को एक बड़ा आर्थिक झटका दिया है। यह कदम रूस-यूक्रेन संघर्ष के मद्देनजर रूस पर बढ़ते पश्चिमी आर्थिक दबाव की श्रृंखला का हिस्सा है और इसका स्पष्ट उद्देश्य भारत को रूसी कच्चे तेल की खरीद बंद करने के लिए मजबूर करना है। यूरोपीय संघ के इस निर्णय ने भारत की ऊर्जा सुरक्षा नीति और उसकी विदेशी व्यापार प्राथमिकताओं पर सीधा दबाव बनाया है। यह कार्रवाई रूस की तेल कंपनियों के साथ व्यापारिक लिंक रखने के कारण की गई है। यूरोपीय संघ के अधिकारियों का मानना है कि इन प्रतिबंधों से भारत पर पर्याप्त आर्थिक दबाव बनेगा, जिससे वह रूस के साथ अपने ऊर्जा सौदों को सीमित करने पर विचार करेगा।
अमेरिका पहले ही लगा चुका है प्रतिबंध
यूरोपीय संघ की यह कार्रवाई अमेरिकी प्रशासन द्वारा पहले ही उठाए गए कड़े कदमों के बाद आई है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने पहले ही रूस की दो प्रमुख तेल कंपनियों पर प्रतिबंध लगा रखा है। इसके अतिरिक्त, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने रूसी तेल के व्यापार को दंडित करने के उद्देश्य से भारत पर 25 प्रतिशत का अतिरिक्त टैरिफ (Penalty Tariff) भी लगा रखा है। ये सभी प्रतिबंध एक व्यापक पश्चिमी रणनीति का हिस्सा हैं, जिसका केंद्र बिंदु रूस की युद्ध मशीनरी के लिए वित्त पोषण को काटना है। अमेरिका और यूरोपीय संघ का मानना है कि ऊर्जा बिक्री से होने वाला राजस्व रूस की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, और इस पर प्रहार करके ही यूक्रेन में शांति स्थापित करने के लिए आवश्यक दबाव बनाया जा सकता है।
भारत की ऊर्जा संप्रभुता पर हमला
भारत सरकार ने हालांकि, लगातार यह स्पष्ट किया है कि वह अपने राष्ट्रीय ऊर्जा हितों को प्राथमिकता देती है। भारत के लिए रूस से तेल खरीदना एक विशुद्ध रूप से व्यावसायिक निर्णय है, जो देश की विशाल ऊर्जा मांगों, किफायती मूल्य और आपूर्ति की निरंतरता को सुनिश्चित करने पर आधारित है। विश्लेषकों का कहना है कि ये प्रतिबंध भारत की ऊर्जा संप्रभुता पर सीधा हमला हैं। भारत के लिए, प्रतिबंधों का दोहरा असर पड़ेगा:
आर्थिक लागत: प्रतिबंधित भारतीय कंपनियां अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करने में बाधाओं का सामना करेंगी, जिससे उनके वित्तीय परिचालन और वैश्विक पहुंच पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
ऊर्जा सुरक्षा की चिंता: यदि भारत को वास्तव में रूसी तेल खरीदना बंद करना पड़ा, तो उसे वैकल्पिक और अक्सर महंगे स्रोतों की ओर रुख करना होगा, जिसका सीधा असर देश के उपभोक्ताओं पर उच्च ईंधन कीमतों के रूप में पड़ेगा।
ये घटनाक्रम दिखाते हैं कि रूस-यूक्रेन संघर्ष अब भू-राजनीतिक मोर्चे से आगे बढ़कर वैश्विक अर्थव्यवस्था और व्यापारिक साझेदारियों को प्रभावित कर रहा है। अमेरिका और यूरोपीय संघ द्वारा भारतीय कंपनियों को लक्षित करने का यह कदम, रूस के खिलाफ एकजुट मोर्चा बनाने के उनके संकल्प को दर्शाता है, भले ही इसके परिणामस्वरूप उनके प्रमुख रणनीतिक साझेदारों में से एक, भारत, के साथ संबंधों में तनाव उत्पन्न हो।
नई दिल्ली की संभावित प्रतिक्रिया
नई दिल्ली के लिए अब विकल्प सीमित हैं। भारत को या तो इन पश्चिमी प्रतिबंधों के आगे झुकना होगा और अपने सबसे बड़े हथियार आपूर्तिकर्ता (रूस) के साथ व्यापार कम करना होगा, या फिर इन आर्थिक दबावों का सामना करते हुए अपने राष्ट्रीय हितों पर अडिग रहना होगा। भारत द्वारा पहले ही अमेरिकी दावों को खारिज किए जाने के बाद, यह संभावना है कि सरकार इन प्रतिबंधों का कड़ा कूटनीतिक विरोध करेगी और अपने ऊर्जा स्रोतों में विविधता लाने की दिशा में और भी अधिक प्रयास करेगी ताकि किसी एक देश पर निर्भरता कम हो। आने वाले दिनों में, भारतीय विदेश मंत्रालय और ऊर्जा मंत्रालय की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण होगी, जो यह निर्धारित करेगी कि भारत इस जटिल वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक दबाव का सामना कैसे करता है।